दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी : साकी फारूकी

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दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी
ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी 

जिस की सख़ावतों की ज़माने में धूम है 
वो हाथ सो गया है तक़ाज़ा न कर अभी 
 
नज़रें जला के देख मनाज़िर की आग में 
असरार-ए-काएनात से पर्दा न कर अभी 

ये ख़ामुशी का ज़हर नसों में उतर न जाए 
आवाज़ की शिकस्त गवारा न कर अभी 

दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल 
ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी 


 साकी फारूकी

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